भारतीय संस्कृति में स्वस्तिक का स्थान सर्वोच्च माना गया है। लगभग हर शुभ कार्य की शुरुआत स्वस्तिक बनाकर ही की जाती है ताकि जीवन में सुख, शांति और कल्याण की कामना की जा सके। प्रतीकों की परंपरा बहुत प्राचीन है और शोध करने पर पता चलता है कि इसका उद्गम मानव सभ्यता के प्रारंभिक दौर, वैदिक युग से ही जुड़ा हुआ है।
‘स्वस्ति’ शब्द संस्कृत धातु ‘सु-अस’ से बना है। ‘सु’ का अर्थ है शुभ या सुंदर और ‘अस’ का अर्थ है अस्तित्व। इस प्रकार स्वस्तिक का अर्थ है – समस्त कल्याण और मंगल का प्रतीक।

स्वस्तिक का आध्यात्मिक महत्व
स्वस्तिक को ‘ऊँ’ का साकार रूप कहा गया है। इसकी चार भुजाएँ अग्नि, इन्द्र, वरुण और सोम का प्रतिनिधित्व करती हैं, साथ ही चारों दिशाओं का भी द्योतक हैं। यह सूर्य मंडल का प्रतीक है जिसका केंद्र सूर्य है। बाद में इसे चार लोकपालों और चतुर्भुज ब्रह्मा से भी जोड़ा गया। पौराणिक दृष्टि से इसे भगवान विष्णु के चार भुजाओं और उनके सुदर्शन चक्र से भी सम्बद्ध किया गया।
गणपति के संदर्भ में इसकी भुजाएँ – सिद्धि, बुद्धि, क्षेम और लाभ – बताई जाती हैं और इसका केंद्र महागणपति को माना गया है।
शास्त्रों और साहित्य में उल्लेख
ऋग्वेद में स्वस्तिक को सूर्य देव ‘सवितृ’ का प्रतीक माना गया है। वाल्मीकि रामायण में इसका उल्लेख मिलता है कि स्वस्तिक ध्वजों पर अंकित किया जाता था। पद्मपुराण के 16 शुभचिह्नों में भी इसका नाम है। महाभारत, अग्निपुराण, गरुड़पुराण जैसे ग्रंथों में भी स्वस्तिक की महिमा वर्णित है।
भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में नृत्य की एक मुद्रा का नाम स्वस्तिक रखा गया है। पाणिनि ने भी अपने व्याकरण में इसका उल्लेख किया।
पुरातात्विक प्रमाण
सिंधु घाटी सभ्यता की मुद्राओं, मोहनजोदड़ो की खुदाई, गुफा-चित्रों, सिक्कों, मूर्तियों और मंदिरों पर स्वस्तिक के चिह्न पाए गए हैं। विक्रमादित्य के ध्वज पर भी स्वस्तिक अंकित था। भारत ही नहीं, बल्कि बर्मा, चीन, जापान, कोरिया और यूरोप के प्राचीन अवशेषों में भी इसका उल्लेख मिलता है।
सामाजिक और लोक परंपरा में स्थान
गांवों में इसे ‘सथिया’ कहा जाता है। विवाह, गृहप्रवेश, सत्यनारायण कथा या यज्ञोपवीत जैसे अवसरों पर कलश, नारियल और चौक पर स्वस्तिक अवश्य बनाया जाता है। व्यापारी अपने बही-खातों पर इसे अंकित करते हैं और विद्यार्थी अपनी पुस्तकों पर। गुजरात व अन्य क्षेत्रों के लोकगीतों और कबीरपंथी साधुओं की पताकाओं पर भी स्वस्तिक अंकित होता है।
सार्वभौमिक प्रतीक
हिंदू धर्म ही नहीं, बल्कि बौद्ध, जैन, सिख, पारसी, सभी परंपराओं ने इसे स्वीकारा और आदर दिया है। बुद्ध के पादचिह्नों और जैन धर्म के मंदिरों में भी स्वस्तिक का पवित्र स्थान है।
दैवी कथा – गणेश और शुभकार्य की परंपरा
कथा है कि जब भगवान कृष्ण का विवाह था, सभी देवताओं को निमंत्रण मिला। शनि को माता-पिता ने अशुभ मानकर बारात में जाने से रोक दिया। गणेशजी को यह बुरा लगा और वे भी रूठ गए। उनके चूहों ने मथुरा की सड़कों को खोद डाला जिससे बारात आगे न बढ़ सकी। तब शिवजी स्वयं गणेश को मनाकर बारात में लाए।
बारात में पहुँचकर गणेशजी ने बारातियों का सारा भोजन चखना शुरू कर दिया। अंत में शिवजी ने उन्हें पान खिलाकर रोका और प्रतिज्ञा की – “आज से हर शुभ कार्य की शुरुआत गणेश की पूजा और भोग से होगी।” तभी से हर मांगलिक कार्य में गणेश की आराधना पहले की जाती है।
निष्कर्ष
स्वस्तिक केवल एक आकृति नहीं, बल्कि कल्याण, समृद्धि, ऊर्जा और दिव्यता का प्रतीक है। इसकी चार भुजाएँ सृष्टि, वेद, जीवन की चार अवस्थाओं और दिशाओं का बोध कराती हैं। इसी कारण यह प्रतीक हजारों वर्षों से भारतीय संस्कृति, धर्म, कला और लोकजीवन का अभिन्न हिस्सा है और आज भी घर-घर में शुभता का संदेश फैलाता है।