भारत की परंपराओं में हर संस्कार का अपना महत्व है। गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टि तक के संस्कार सिर्फ धार्मिक अनुष्ठान नहीं होते, बल्कि सामाजिक और वैज्ञानिक दृष्टि से भी गहरे अर्थ रखते हैं। जीवन के बाद भी आत्मा को अमर माना गया है, जबकि शरीर नश्वर है। मृत्यु के पश्चात आत्मा अपने कर्मों के अनुसार विभिन्न योनियों में भटकती है और अंततः मोक्ष की तलाश करती है।

मुक्ति के पांच प्रमुख मार्ग
प्राचीन धर्मग्रंथों में आत्मा की मुक्ति के लिए पांच मुख्य यज्ञों का उल्लेख मिलता है –
- ब्रह्म यज्ञ
- देव यज्ञ
- पितृ यज्ञ
- अतिथि यज्ञ
- भूतवैश्य यज्ञ
इनमें से पितृ यज्ञ को विशेष महत्व दिया गया है। अपने पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए जो श्राद्ध, तर्पण और पिंडदान किया जाता है, वही पितृ यज्ञ कहलाता है।
पितृयज्ञ की परंपरा और महत्व
सनातन काल से यह माना जाता है कि पितृयज्ञ का वास्तविक फल त्रिस्थली – प्रयागराज, काशी और गया – में जाकर ही मिलता है। वायु पुराण में विशेष रूप से गया धाम को मोक्ष प्राप्ति का सर्वोत्तम स्थल बताया गया है। मान्यता है कि यहां पिंडदान करने से सात पीढ़ियों और सौ कुलों तक के पूर्वजों की आत्माओं को तृप्ति मिलती है।
गया धाम और विष्णुपद मंदिर
गया का नाम सुनते ही सबसे पहले विष्णुपद मंदिर की छवि मन में उभरती है। यह एकमात्र तीर्थ है जो भगवान विष्णु को समर्पित है। यहां फल्गु नदी के किनारे भगवान विष्णु के चरणचिह्न अंकित हैं।
18वीं सदी में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई होल्कर ने इन चरणचिह्नों की पूजा हेतु लगभग 100 फुट ऊँचा भव्य मंदिर बनवाया। काले ग्रेनाइट पत्थरों से तैयार इस मंदिर की नक्काशी आज भी भारतीय शिल्पकला का अद्भुत उदाहरण है।
गया पांच प्रमुख पहाड़ियों से घिरा हुआ है। यहां की जलवायु बिहार में सबसे कठोर मानी जाती है – गर्मियों में सबसे ज्यादा गर्म और सर्दियों में सबसे ठंडी। यहां की प्रसिद्ध मिठाई तिलकूट भी देशभर में लोकप्रिय है।
फल्गु नदी और माता सीता का श्राप
फल्गु नदी का महत्व पितृपक्ष से गहराई से जुड़ा है। झारखंड के छोटा नागपुर पठार से निकलने वाली यह नदी माता सीता के श्राप के कारण गर्मियों में सूखी रहती है।
वाल्मीकि रामायण में वर्णन है कि वनवास काल में श्रीराम, लक्ष्मण और माता सीता अपने पिता राजा दशरथ की आत्मा की तृप्ति के लिए गया आए। जब श्रीराम और लक्ष्मण सामग्री लेने गए, तब माता सीता ने फल्गु नदी, गाय, वटवृक्ष और केतकी पुष्प को साक्षी मानकर रेत के पिंड से पितृयज्ञ किया।
जब राम लौटे तो उन्हें विश्वास नहीं हुआ। तब केवल वटवृक्ष ने इस घटना की गवाही दी, बाकी सब मौन रहे। क्रोधित होकर सीता जी ने फल्गु नदी को सूखा रहने का, गाय को विष्टा खाने का, केतकी फूल को शुभ कार्यों से वंचित रहने का और ब्राह्मणों को भविष्य में भिक्षा मांगने का श्राप दिया। वहीं वटवृक्ष को उन्होंने अक्षय बने रहने का आशीर्वाद दिया। शायद इसी वजह से वटवृक्ष पतझड़ में भी हरा-भरा रहता है।
पितृपक्ष और श्राद्ध का महत्व
पितृयज्ञ करने का सबसे पावन समय भाद्रपद पूर्णिमा के बाद आने वाले 15 दिन माने जाते हैं। यह समय आश्विन कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक चलता है। अंतिम दिन की अमावस्या को महालया भी कहा जाता है।
इन्हीं दिनों को पितृ पक्ष कहा जाता है। ज्योतिषीय दृष्टि से यह वह समय होता है जब सूर्य कन्या राशि में रहता है।
श्राद्ध और तर्पण के दो अंग
पितृ यज्ञ दो मुख्य तत्वों पर आधारित है –
- श्राद्ध – यानी श्रद्धा से पूर्वजों का स्मरण और उनके लिए किए गए कर्म।
- तर्पण – यानी जल अर्पण कर पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता प्रकट करना।
श्रद्धा से किया गया श्राद्ध न केवल स्वर्गवासी आत्माओं को शांति देता है, बल्कि जीवित प्राणियों के भीतर भी संतोष और सद्भावना की ऊर्जा जगाता है।
निष्कर्ष
श्राद्ध का वास्तविक अर्थ केवल कर्मकांड नहीं, बल्कि पूर्वजों के प्रति हमारी श्रद्धा और कृतज्ञता है। जब हम पितरों का स्मरण कर तर्पण करते हैं तो हम यह स्वीकार करते हैं कि हमारा अस्तित्व उन्हीं की देन है। इसलिए कहा गया है –👉 श्राद्ध, श्रद्धा का ही रूप है।